यन्त्रों में बिन्दु रेखा, त्रिकोण, वृत्त आदि ज्यामिती - विज्ञान का प्रयोग होता है । यंत्र केवल रेखाचित्र नहीं, बल्कि ईश्वरीय ऊर्जा का केंद्र है। जो श्रद्धा, नियम और मंत्रों से सिद्ध होकर चमत्कारी रूप में कार्य करता है। यदि सही यंत्र को शुद्ध रूप से बनाकर, मंत्र जाप और पूजा से सिद्ध किया जाए, तो यह साधक के जीवन को आध्यात्मिक, मानसिक और भौतिक रूप से समृद्ध बना सकता है। इसकी महत्ता प्रदर्शित करते हुए युनानी अपनी पाठशाला के बाह्य कक्ष पर यह घोषणा लिखवादी थी कि जो विद्यार्थी ज्यामिती से अपरचित हो, वह इस पाठशाला में प्रवेश के लिए प्रयत्न न करे ।
यन्त्र केवल रेखाओं और त्रिकोण आदिसे बने ज्यामिती - विज्ञान के प्रदर्शक चित्र ही नहीं हैं, उनकी रचना विशेष आध्यात्मिक दृष्टिकोणसे की जाती है । जिस प्रकार से विभिन्न प्रकार के देवी देवताओं के रङ्ग रूप के रहस्य होते हैं, उसी तरह सभी यन्त्र विशेष उद्देश्य से बनाये गये हैं ताकि उसका ध्यान कर सकें । वास्तव में यन्त्रों में पिण्ड और ब्रह्माण्ड का दर्शन पिरोया हुआ है । भारतीय दर्शन का यह मत है कि जो कुछ ब्रह्माण्ड में है जैसे - सूर्य, चन्द्र, ग्रहण, नक्षत्र आदि वह देव शक्तियाँ हमारे सूक्ष्म शरीर में विद्यमान रहती है, परन्तु हम उनका अनुभव नहीं कर पाते । मानव का गौरव महान् है, परन्तु खेद है कि वह इससे अपरचित है । जब साधक मूर्ति - पूजा, पाठ, स्तुति, जाप, यज्ञ आदि विविध विद्वानों द्वारा आत्मिक प्रगति के स्तर तक पहुँच जाता है, तो गुरु उसे यन्त्र पूजा का अधिकार प्रदान करते हैं । इसका अर्थ यह है कि उसे अपने पिण्ड में विद्यमान आध्यात्मिक शक्तियों को अनुभव करने के मार्ग पर चलना है । सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्रों की शक्तियाँ हमारे लिए प्रत्यक्ष चमत्कार दिखाई देती हैं । हमारा पिण्ड उस विश्व ब्रह्माण्ड का संक्षिप्त संस्करण है अतः हमारे पिण्ड में व्याप्त वह शक्तियाँ भी उतनी चमत्कारी हो सकती है यदि उन्हें विधिपूर्वक जगा सकें । यन्त्र का ध्यान करते हुए साधक ब्राह्मण का ध्यान करता है अपने पिण्ड को वह ब्रह्म जितना ही विस्तृत अनुभव करने लगता है । एक समय आता है जब दोनों में कोई अन्तर नहीं रहता और वह अपने शरीर - अपनी ही पूजा करता है। वह भगवती को अपना ही रूप समझता है । फिर उसे सारा जगत ही अपना रूप लगने लगता है, वह अपने को सब में समाया हुआ पाता है, अपने अतिरिक्त उसे और कुछ दृष्टिगोचर ही नहीं होता है । वह अद्वैत सिद्धि के मार्ग पर प्रशस्त होता है और ऐसी अवस्था में आ जाता है कि ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय एक ही रूप लगने लगते हैं । साधक का शरीर अब अनन्त विश्व और अखण्ड ब्रह्म का रूप धारण कर लेता है । यन्त्र की पूजा करते हुए जिन शब्दों का उच्चारण किया जाता है, उससे भी यही भावमें निकलता है वे शब्द यह है - आहुति ब्रह्म है, होमी जाने वाली सामग्री भी ब्रह्म है, ब्रह्मरूपी अग्नि में ब्रह्मरूपी होता आहुति देता है । जो ब्रह्म को आहुति देने में एकाग्र हो जाता है, उसे ही ब्रह्म की एकता सिद्धि प्राप्त होती है।" यन्त्र द्वारा इस अन्तिम लक्ष्य तक पहुँचने के लिए विभिन्न प्रकार की साधनायें करनी पड़ती हैं इनका संकेत यन्त्र के विभिन्न अंगों से परिलक्षित होता है। उनका चिन्तन मनन करना होता है । विचार - साधना से ही उत्कर्ष होता है ।
बिन्दु (Dot / Period / Full stop) - यन्त्र के बीच में बिन्दु होता है, वह गतिशीलता का द्योतक है । शरीर और ब्रह्माण्ड का प्रत्येक परमाणु अपनी धुरी पर तीव्रतम गति से हर क्षण चक्कर काट रहा है । यह सर्वव्यापक है । अतः हमें उन्नति के मार्ग पर संतुष्ट नहीं रहना है, हर क्षण आगे बढ़नेके लिए तत्पर और गतिशील रहना है । तभी शरीर मन, बुद्धि और आत्मा क्रियाशील हो सकते हैं। बिन्दु आकाश तत्व का प्रतिनिधित्व करता है क्योंकि इसमें अनुपवेश भाव रहता है, जो श्री आकाश का गुण है।
चतुरस्र (Square) - में बहुमुखता का भाव है, जिससे विस्तार का संकेत मिलता है, जो पृथ्वी का गुण है । अतः चार व अधिक भुजाओं वाले आकार पृथ्वी के द्योतक माने जाते हैं ।
त्रिकोण/त्रिभुज का शीर्ष कोण (Vertical Angle) - चित्र में जब ऊपर की ओर नोक निकली हो, बाण द्वारा संकेत हुआ है या अग्नि - शिखा बनी हो, तो वह उन्नति का भाव प्रदर्शित करता है क्योंकि अग्नि का स्वभाव ऊपर को उठने का ही है । उसे कितना ही रोका जाय, वह ऊँची ही उठना चाहैगी । त्रिभुज का शीर्ष कोण जब ऊपर की ओर बना होता है, तो यह अग्नि शिखा का ही प्रतीक माना जाता है । जब यह शीर्षकोण नीचे की ओर होता है, तो जल तत्व का द्योतक माना जाता है क्योंकि नीचे की ओर प्रवाहित होना ही जल स्वभाव है ।
वृत्त (Circle) - वायु का द्योतक माना जाता है क्योंकि वृत्त से चक्राकार गति के लक्षण पाये जाते हैं । जब एक बिन्दु दूसरे के चारों ओर चक्कर लगाता है, तो वृत्त बनता है । वायु भी घूमती है और जिसके साथ सम्पर्क में आती है, उसे घुमाने लगती है । अग्नि और जल दोनों के साथ यही स्थिति रहती है । अद्धवृत्त या वृत्त के किसी भाग को वायु का चिन्ह नहीं माना जा सकता, क्योंकि उसमें चक्राकार घूमने की प्रवृत्ति नहीं होती । उसे तो कुर्चित (Curved) की संज्ञा दी जा सकती है । त्रिभुज में जब किनारे मिलते हैं, तो वह अन्तर शून्य पर आ जाता है । इसलिए अर्द्धवृत्त या वृत्त के किसी अंश को जल का द्योतक माना जाता है ।
चतुष्कोण/भूपुर Quadrilateral - यन्त्र में सबसे बाहर जो चतुष्कोण बना होता है, उसे 'भूपुर' कहते हैं । यह 'भूपुर' विश्व/नगर का प्रतीक माना जाता है । किसी भी दशा में इसमें प्रवेश करके आगे बढ़ने का अर्थ साधना में प्रगति का चिन्ह है । बिन्दु यन्त्र के बीच में रहता है । वह अन्तिम लक्ष्य माना जाता है । वहीं ईश्वर के दर्शन होते हैं । उपरोक्त विवरणसे स्पष्ट है कि पूजा - उपासनामें मन्त्र एक विशिष्ट स्थान रखता है । शास्त्र का वचन है - " प्रतिमायाः अभावे अपि वक्ष्यमाणलक्षणं यन्त्र विलिख्य पूज्येत् । " अर्थात् - जिस देवता का पूजन करना हो, उसकी मूर्ति न होने पर उस देवता का निर्दिष्ट लक्षणों से यन्त्र बनाकर उसकी पूजा करें । इसका स्पष्ट अभिप्राय यह है कि देवताकी मूर्तिकी उपासना से जो लाभ प्राप्त होना सम्भव है, वह मन्त्र पूजन से भी हो सकता है ।
गौरीयामल तन्त्र के अनुसार चार प्रकारके यन्त्र होते है । १. भूपृष्ठ २. कूर्मपृष्ठ, ३. पद्मपृष्ठ, ४. मेरु पृष्ठ । कूर्म और पद्म पृष्ठकी रेखायें ऊपरकी ओर होती हैं परन्तु भू - पृष्ठ की रेखायें नीचेकी ओर होती हैं । प्राण प्रतिष्ठा और आवाहन के सम्बन्ध में तीन प्रकार का वर्णन आता है । १. अचल २. चल ३. धारण करने योग्य । अचल का अर्थ स्पष्ट है । वह अपने स्थान पर ही रहेगा उसे हटाया नहीं जायेगा । चल प्रतिष्ठा में स्थान परिवर्तित हो सकता है । धारणा योग्य सदैव अपने साथ रहता है । केवल उपासना के समय उसे पृथक किया जाता है । रुद्रायमल तन्त्र में रत्नों पर अङ्कित यन्त्रों को विशेष प्रकार से महत्वपूर्ण और फलदायक बताया गया है । यन्त्र सोने, चाँदी, ताँबे और शतगुणी पर भी बनाये जाते हैं । इनको भी साधारण यन्त्र से अधिक महत्व दिया जाता है । इन धातुओं पर बनाये जाने वाले यन्त्रों के सम्बन्ध में विशिष्ट शास्त्रोक्त नियम उपलब्ध हैं, जिनमें शुद्ध तौल विशेष महत्व का है । मन्त्रों की तरह यन्त्रोंसे भी अनेकों प्रकारके लाभ होते देखे गये हैं । कुछ यन्त्र केवल अङ्गात्मक होते हैं और कुछ में मन्त्र सम्मिलित रहते हैं रोग निवृत्ति के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार की विपत्तियों के निवारण के लिए भी यन्त्रों का सफल प्रयोग किया जाता है । जिसमें विधि का उल्लेख न किया गया हो, उसमें समझना चाहिए कि इस भोजपत्र पर अष्ट गन्ध से लिखना चाहिए और ताँबे के ताबीज में डालकर गुग्गुलकी धूप देकर पूजन करना चाहिए । पुरुष इसे दाँये हाथ या गले में और स्त्रियाँ बाँये हाथ या गले में बाँध जिस यन्त्र में मन्त्र सम्मिलित रहता है यन्त्र को प्रभावशाली बनाने के लिए सूर्य ग्रहण व चन्द्रग्रहण के समय सम्बिन्धत मन्त्र का १०८ वार उच्चारण करना चाहिए और तत्पश्चात् यन्त्र का पूजन करना चाहिए । बिना मन्त्र के यन्त्र का केवल पूजन ही करना पर्याप्त रहता है । श्रद्धा ओर विश्वास से कि गई प्रत्येक साधना में सफ़लता मिलति है ।
प्रत्येक वस्तु के निर्माण में कुछ विशेष नियमों के अनुसार चलना पडता हे, यन्त्र रचना में कुछ आवश्यक बातों पर ध्यान रखना पडता हे. यंत्र की शक्ति तभी जागृत होती है जब उसे पूर्ण विधि-विधान से स्थापित किया जाए। श्रद्धा, नियम, मंत्र जाप और पवित्रता – यही यंत्र के प्रभाव की कुंजी हैं। उनका विवेचन के हेतु श्री भगीरथ पण्ड्याजी का संपर्क अवश्य करे.
-: प्रमुख यंत्रो के प्रकार :-